हाल ही में एनडीटीवी के प्रोमोटर प्रणय रॉय के ठिकानों पर छापेमारी की खबरें चर्चा में थीं। सीबीआई के उन छापों ने देश को हैरान नहीं किया था क्योंकि जिस तरह एनडीटीवी ने सरकारी नीतियों के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था उससे इस सरकार का देर सबेर विचलित होना तय था। सरकार की उम्मीद के खिलाफ डरा सहमा मीडिया अचानक उचक कर एक साथ खड़ा हो गया।
उसके बाद द वायर की सनसनीखेज़ स्टोरीज़ में से एक ने अमित शाह के कुलदीपक श्री जय शाह को कटघर में ला खड़ा किया। वायर के तेवरों से साफ था कि वो सरकार से दो-दो हाथ करने उतरा है, तो जब एक कारोबारी पर लगे इल्ज़ामों की सफाई देने बीजेपी प्रवक्ता मैदान में आए ये साफ हो गया कि वायर को सज़ा मिलेगी। द वायर के खिलाफ मानहानि के मुकदमों ने वही साबित किया। पिछले दिनों एक कार्यक्रम के दौरान वायर के प्रतिनिधि ने मेरे एक सवाल के जवाब में बताया भी था कि वो लोग उन मुकदमों को पूरी हिम्मत से लड़ रहे हैं। हालांकि बहुत लोग मानेंगे कि अपने तेवर ढीले ना करनेवाले वायर पर अगले ज़ोरदार हमले की सभी को आशंका है।
इस बीच पिछले करीब डेढ़ साल से क्विंट के वीडियोज़ और खबरों ने सरकार की नींद हराम कर दी थी। मोदी की आर्थिक नीतियों का जैसा बैंड राघव बहल और संजय पुगलिया जैसे आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ पत्रकारों ने बजाया था उससे ये भ्रम आम लोगों के बीच से छंटने लगा कि सरकार के कथित सुधार राष्ट्रहित में हैं। पूंजीपतियों के गले में हाथ डालकर झूम रहे प्रधानसेवक और छोटे सेवकों को घबराहट हो रही थी.. और फिर आज सुबह खबर आ भी गई कि इनकम टैक्स विभाग ने क्विंट के के संस्थापक संपादक राघव बहल के ठिकानों पर छापे मारे हैं। द न्यूज़ मिनट वेबसाइट के बैंगलोर दफ्तर पर भी छापेमारी की खबर है जिसमें क्विंट की हिस्सेदारी है।
पत्रकारों और पत्रकारिता संस्थानों को लाइन पर लाने के लिए सरकार के ये हथकंडे कोई नए नहीं हैं। दुनिया भर में यही होता है। ट्रंप के अमेरिका से लेकर एर्दुएन के तुर्की तक ये आम है। भारत में जिस तरह बीजेपी ने कांग्रेस से बहुत कुछ सीखा है उसी तरह सत्ता में रहकर मीडिया को पुचकार कर तो कभी घुड़की देकर कैसे 'अच्छा बच्चा' बनाए रखा जाए ये भी सीखा है।
मैं इस पोस्ट को भटकने से बचाने के लिए उन मीडिया संस्थानों का नाम नहीं लेना चाहता जिनका पहले अनेक बार ले चुका हूं कि कैसे वो वित्तीय मामलों में भारी गडबड़झाला करके भी सुरक्षित हैं। बताने की ज़रूरत नहीं कि उन सभी को प्रधानसेवक जी के दुर्लभ इंटरव्यू सहजता से मिल जाते हैं और अक्सर आप उन सभी पर सत्ताधारी पार्टी के एजेंडे को पुष्ट करनेवाली बहसें देखते- सुनते भी हैं।
'किल द मैसेंजर' एक बहुत मशहूर कहावत है, उसी से मिलते जुलते नाम वाली किताब SUE THE MESSENGER पढ़िए जिसे सुबीर घोष- परॉन्जॉय गुहा ठाकुरता ने लिखा है कि कैसे कानूनी हथकंडों से बड़े कॉरपोरेट पत्रकारीय रिपोर्ट्स की भ्रूण हत्या कर डालते हैं। किससे छिपा है कि ऊंची पहुंच वाले अपने खिलाफ छपने वाली खबरों और किताबों को आसानी से रोक लेते हैं। फिर ये तो सरकार है, ये कुछ भी रोक सकती है। चुनावों के आसपास उन संस्थानों और खबरों को भी रोक सकती है जो उसकी नीती पर आलोचनात्मक हैं। एजेंसियां तो महज़ मोहरा हैं। कुछ वक्त बाद वो क्लीन चिट भी दे देती हैं लेकिन इस बीच सरकारें वो सब साध लेती हैं जो साधने की इच्छुक होती हैं। दरबारी मीडिया के बुरे दौर में कुछेक आवाज़ें अपनी-अपनी वजहों से बुलंद हैं, इनका खामोश होना सबसे ज़्यादा अगर किसी के लिए नुकसानदेह है तो वो भारत के जन-गण-मन के लिए ही है।
- सभी सवर्ण का यही पुकार मोटा जवानों की बार
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